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Friday, January 15, 2016

राष्ट्रीय अध्यक्ष का सन्देश

‘आजादी का पर्व’ भारत के ‘गणतन्त्र दिवस’ की तुलना में छोटी घटना : आज की युवा पीढी शायद इस बात को आसानी से नहीं समझ सके कि भारत की ‘आजादी का पर्व’ भारत के ‘गणतन्त्र दिवस’ की तुलना में देश के इतिहास की छोटी घटना थी, क्योंकि भारत के हजारों साल के इतिहास में, भारत के कई सौ छोटे-छोटे राज्य, प्रदेश, सूबे, क्षेत्र और इलाके न जाने कितनी बार एक राजा/बादशाह/शासक से दूसरे राजा/बादशाह/शासक के
अधीन/स्वतन्त्र/आजाद होते रहे हैं। इस दौरान यहां की शोषित/गुलाम और असहाय प्रजा ने राजशाही, सामन्तशाही, बादशाही, अंगरेजी हुकूमत, आजादी और परतन्त्रता को खूब देखा, भोगा और सहा था। इसलिये 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों से मिली आजादी भी भारतीयों की तत्कालीन पीढी के लिये कोई नयी, अनौखी या अनहौनी घटना नहीं थी।

मगर ‘गणतन्त्र दिवस’ भारत के इतिहास में नयी, अनौखी या अनहौनी घटना थी और सदैव रहेगी : हाँ 26 जनवरी, 1950 को जब भारत में, भारतीय लोगों द्वारा बनाया गया संविधान लागू हुआ तो यह अवश्य भारत के इतिहास में नयी, अनौखी या अनहौनी घटना थी और सदैव रहेगी। अनेक लोग भारत के संविधान को अंग्रेजों के कानूनों की नकल भी मानते हैं और भारतीय गणतन्त्र के इतिहास में जनता के अनुभव में संविधान में अनेक प्रकार की खामियाँ भी सामने आयी हैं। जिसके लिये कौन कितना जिम्मेदार है, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि हम संसार का सर्वश्रेष्ठ समझा और कहा जाने वाला संविधान बनाने में तो सफल रहे, लेकिन हम श्रेष्ठ और देशभक्त नागरिक तथा जनता के प्रति जवाबदेह जन प्रतिनिधि और लोक सेवक बनाने में पूरी तरह से नाकामयाब और असफल रहे। जिसके चलते आज की पीढी भारत के विशाल और बहुआयामी सोच को परिलक्षित करने वाले भारत के संविधान की महत्ता और गरिमा को कैसे समझ सकती है?

इस सबके उपरान्त भी भारत के इतिहास में 26 जनवरी, 1950 का दिन स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाने वाला दिन है और सदैव रहेगा। भारत में संविधान लागू होते ही देशवासियों में ‘समानता की स्थापना’ करने वाली ऐसी संवैधानिक व्यवस्था कायम हो गयी, जिसकी-उस समय के आम लोगों की पिछली पीढियों ने कभी सपने में भी कल्पना तक नहीं की होगी। जिसे नीचे दी गयी कुछ बातों से उस समय के सामाजिक एवं प्रशासनिक सन्दर्भ में साफ-साफ समझा जा सकता है :-

वर्ष 1950 में ‘समानता की स्थापना’ करने वाली संवैधानिक व्यवस्था कायम होने का तात्पर्य क्या है?
1. लिंग भेद समाप्त : आर्य व्यवस्था के गुलाम भारत में स्त्रियों को दोयम दर्जे की नागरिक समझा जाता था। अनेक ऐसे भी उदाहरण हैं, जिनमें स्त्री को मानवीय अधिकार भी नहीं थे। स्त्रियों को जानवरों की भांति बेचा और खरीदा जाता था। लेकिन संविधान लागू होते ही, कानूनी रूप से स्त्री, पुरुष के समकक्ष खड़ी हो गयी। धर्म और सामाजिक बुराईयों में जकड़े भारत के समाज में यह एक ऐतिहासिक और अनहोनी घटना थी। यद्यपि भारत के आदिवासियों में स्त्री को सदैव से पुरुष के समान समझा जाता था।

2. धार्मिक विभेद से मुक्ति : हमारे देश में मनुस्मृति के आदेशों से धार्मिक विभेद को सामजिक और राजशाही की मान्यता प्राप्त थी, जो संविधान लागू होते ही समाप्त हो गयी।

3. धार्मिक आजादी : हमारे देश में मनुस्मृति के आदेशों से शासकों द्वारा धर्म/सम्प्रदाय-विशेष के लोगों को अपने धर्मानुसार आचरण करने की आजादी पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अंकुश लगाया जाता रहा, जो संविधान लागू होते ही न मात्र समाप्त हो गया, बल्कि संविधान लागू होने के साथ-साथ सरकारों पर यह संवैधानिक दायित्व भी सौंपा गया है कि सरकार सभी धर्मों और सम्प्रदायों के प्रति समभाव रखेंगी और धर्म के आधार पर किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जायेगा।

4. जातिगत भेदभाव समाप्त : हमारे देश में मनुस्मृति के आदेशों से अदालतों/धर्माधीशों/पंचों द्वारा आरोपियों की उच्च और निम्न जाति तथा उनके व्यवसाय को देखकर इंसाफ किया जाता था और अलग-अलग दण्ड दिये जाते थे, जो संविधान लागू होते ही समाप्त हो गये।

5. छुआछूत समाप्त : हमारे देश में मनुस्मृति के आदेशों से निम्न जातीय लोगों के प्रति अस्पृश्यता और छुआछूत का व्यवहार/दुर्व्यवहार करना धर्मानुकूल माना जाता था, जो संविधान लागू होते ही समाप्त हो गया।

6. रंगभेद समाप्त : हमारे देश में अदालतों द्वारा आरोपियों के काले-गौर रंग को देखकर इंसाफ किया जाता था, जो संविधान लागू होते ही समाप्त हो गया।

7. समान मताधिकार : भारत में जहाँ स्त्रियों और दमित लोगों को सम्मान से अपना दैनिक जीवन जीने तक का हक नहीं था, वहां समान मताधिकार की कल्पना करना भी इनके लिए असम्भव था! संविधान ने सभी वयस्कों को सामान मताधिकार दिया और सत्ता को बदलने का हथियार बहुसंख्यक भारतीयों को प्रदान किया। यह अपने आप में बहुत बड़ी और अप्रत्याशित घटना थी।

सवाल उठता है कि इस सबके बावजूद भी भारत की दशा अत्यन्त चिन्तनीय और दर्दनाक क्यों है? उपरोक्त सभी और ऐसी ही अनेकों बातों के होते हुए भी भारत के लोगों द्वारा बनाया गया, भारतीय संविधान, भारत में लागू होने के उपरान्त भी आज देश के बहुसंख्यक लोगों की दशा अत्यन्त चिन्तनीय और दर्दनाक है। मात्र दो फीसदी लोग देश के सभी संसाधनों और सत्ता पर काबिज हैं। जिसके लिये मूल रूप से निम्न बातें और कारक जिम्मेदार हैं :-

1. बुराईयों के समर्थक लोगों का सत्ता, सरकार और नीति निर्माण में आजादी के बाद से लगातार एकाधिकार रहा : समानता को लागू करने वाली सभी बातें संवैधानिक रूप से भारत में लागू तो हो गयी, लेकिन इन सभी बुराईयों के समर्थक लोगों का सत्ता, सरकार और नीति निर्माण में आजादी के बाद से लगातार एकाधिकार रहा है। जो अभी भी समाप्त नहीं हुआ है। इस कारण कमोबेश संविधान लागू होने से पूर्व की सभी बुराईयाँ आज भी इस देश में संविधान को धता बताकर कायम हैं और अनेक लोग, संगठन तथा राजनैतिक दल फिर से पुरातनपंथी व्यवस्था को इस देश में लागू करने के सपने देखते रहते हैं। जिसके चलते देश का सौहार्दपूर्ण माहौल खराब करने का लगातार प्रयास किया जाता रहता है। इन लोगों का लगातार प्रयास है कि येन-कैन प्रकारेण भारत के संविधान को विफल सिद्ध करके, नया संविधान लागू किया जावे, और इस प्रक्रिया में समानता के उपरोक्त समस्त पवित्र सिद्धान्तों को परोक्ष रूप से नकार दिया जावे।

2. सत्ता में आने के बाद किसी ने आम लोगों और देश के उत्थान के लिये, संविधान के अनुसार कार्य नहीं किया : अंग्रेजी शासन के विरुद्ध स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने वाली भारतीय देशभक्त पीढी के अवसान के बाद, देश के राजनैतिक धरातल पर ऐसी पीढी का उदय हुआ, जो किसी भी तरीके से सत्ता पर काबिज होना अपना पहला और अन्तिम लक्ष्य मानने लगी और यह पीढी सत्ता पर न मात्र काबिज होती गयी, बल्कि इस पीढी ने सत्तारूढ होने के बाद, सत्ता का मनमाना दुरूपयोग भी किया। भारत में केन्द्रीय और प्रांतीय स्तर पर कमोबेश सभी दलों की सरकारें रह चुकी हैं, लेकिन सत्ता का मनमाना दुरूपयोग करने के मामले में सभी में एकरूपता देखी गयी है। सत्ता में आने के बाद किसी ने आम लोगों और देश के उत्थान के लिये, संविधान के अनुसार कार्य नहीं किया। हर एक ने अपना वोट-बैंक पक्का करने के लिये देश का खजाना लुटाया या सभी ने मिलकर लूटा है, और लगातार लूट रहे हैं।

3. आजादी से पूर्व में जारी भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था को भारत में ज्यों का त्यों लागू रखा : आजादी के बाद भी, आजादी से पूर्व में जारी भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था को भारत में ज्यों का त्यों लागू रखा गया। जिसके चलते नौकरशाहों को दिया जाने वाला प्रशिक्षण और प्रशासनिक व्यवस्था को संचालित करने वाली भेदभावपूर्ण कानूनी व्यवस्था को बदस्तूर लागू करना और अगली पीढी के लिये स्थानान्तरित करना जारी रखा गया। जबकि 26 जनवरी, 1950 को संविधान के अनुच्छेद 13 (1) में इस भेदभावपूर्ण और अंग्रेजों द्वारा अपने स्वार्थ साधन के लिये भारतीयों पर जबरन थोपी गयी व्यवस्था को पूरी तरह से निरस्त और शून्य करार दिया जा चुका था। इस प्रकार की व्यवस्था के चलते भारतीय नौकरशाह, जिन्हें संविधान में लोक सेवक अर्थात्-जनता के नौकर का दर्जा दिया गया, वे जनता के विरुद्ध भूखे भेड़ियों की तरह से बर्ताव करने लगे और उन्होंने जैसे चाहा, उसी प्रकार से देश के संसाधनों को लूटना और बर्बाद करना शुरू कर दिया। जो आज भी जारी है।

4. सत्ताधारी और प्रशासक दोनों चोर-चोर मौसेरे भाई : उक्त बिन्दु 2 एवं 3 में दर्शायी गयी स्थिति में सत्ता और प्रशासन दोनों के स्वार्थपूर्ण और आपराधिक लक्ष्य मिल गये। अर्थात् दोनों को देश और देशवासियों को लूटना था। अत: चोर-चोर मौसेरे भाई बन गये। अंग्रेजों की विरासत में प्राप्त शोषण, अत्याचार और देश को लूटने के सभी गुण नौकरशाहों ने जनप्रतिनिधियों को भी सिखा दिये। इस प्रकार जनप्रतिनिधियों तथा नौकरशाहों के बीच ऐसा अटूट-गठजोड़ बन गया, जिसे तोड़ना आम जनता के लिये सत्ता परिवर्तन से सम्भव नहीं रहा, क्योंकि सत्ता के बदलते ही नौकरशाह नये सत्ताधारियों को चारा डालने के लिये तैयार रहने लगे। इस कारण देश में भ्रष्टाचार, अत्याचार, उत्पीड़न, भेदभाव, कमीशनखोरी, मिलावट और विकास के नाम पर लूट का खुला खेल शुरू हो गया, जो लगातार जारी है।

5. न्यायपालिका को भी भ्रष्टाचार के रोग ने जकड़ लिया : उपरोक्त हालातों में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका तो एक दूसरे के पूरक बनकर रह गये। ऐसे में आम लोगों ने न्यायपालिका की ओर आशाभरी नजर से देखना शुरू कर दिया। न्यायपालिका ने जनता को पूरी तरह से निराश भी नहीं किया, लेकिन शनै: शनै: न्यायपालिका को भी भ्रष्टाचार के रोग ने जकड़ लिया। न्यायालय धनकुबेरों और उच्च अधिकारियों के विरुद्ध यदा-कदा होने वाली कानूनी कार्यवाहियों को संचालित नहीं होने देने के लिये स्थगन आदेश और जनहित याचिकाओं के आधार पर परोक्ष रूप से संरक्षण प्रदान करते हुए नजर आ रही है। जबकि आम लोगों के मामलों में सालों तक सुनवाई नहीं होती है। इससे आम जनता की नज़र में न्यायपालिका की साख भी घटी है।

6. मीडिया पर पूंजीपतियों एवं सत्ता के दलालों का कब्जा : उपरोक्तानुसार व्यवस्था पर काबिज दो फीसदी लोगों में शामिल पूंजीपतियों और सत्ता के दलालों का आज मीडिया पर एकछत्र कब्जा हो चुका है। इस कारण आम जनता की आवाज तब तक की मीडिया की जबान बनती है, जब तक कि पूंजीपतियों और सत्ताधारियों के हितों को नुकसान नहीं हो। इससे मीडिया भी सत्ता और पूंजीपतियों के इशारे पर काम करता है।

इन हालातों में जनता की ‘‘एकजुटता’’ की ताकत के अलावा कोई रास्ता नहीं है : इन विकट और दर्दनाक हालातों में जनता को अपनी ‘‘एकजुटता’’ की ताकत के अलावा कहीं से भी कोई आशा नजर नहीं आती है, क्योंकि इतिहास गवाह है कि जनता की एकजुट ताकत के आगे झुकना सत्ता और प्रशासन की मजबूरी रही है। इसलिये वर्तमान में "देश के अच्छे, सच्चे, न्यायप्रिय और देशभक्त लोगों तथा नौकरशाहों को एकजुट होकर एक दूसरे की ढाल बनने की सख्त जरूरत है|" यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो ही हम-

(1) सबसे पहले हम स्वयं अपनी एवं अपने परिवार की जानमाल की हिफाजत कर पाने में सक्षम हो पायेंगे।
(2) यदि हम स्वयं एवं अपने परिवार की जानमान की हिफाजन करने में सफल रहेंगे, तो ही हम जरूरतमन्द, विकलांग, अक्षम और निरीह लोगों तथा पर्यावरण एवं मूक जीव-जन्तुओं की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिये कदम उठा पायेंगे।
(3) जब हम उक्त दोनों स्तरों पर न्याय पाने और न्याय दिलाने में सफल हो जायेंगे तो ही हम पुरजोर तरीके से देश और देशहित की बात करने के काबिल हो सकेंगे। इस स्तर पर हम नकली दवाई बनाने वाली फैक्ट्रियों, जमीनों को बेचने वाले सत्ताधारियों, सत्ता के दलालों, कालाबाजारी करने वालों, मिलावटियों, धर्म, शिक्षा और चिकित्सा को व्यापार बना देने वालों आदि के विरुद्ध एकजुट होकर जनहित और राष्ट्रहित में सफलतापूर्वक जनान्दोलन शुरू करने और भारत को बचाने में सक्षम और समर्थ हो पाएंगे।

सबसे बड़ी चेतावनी : लेकिन ध्यान रहे कि ‘‘देश की नौकरशाही और समस्त राजनैतिक दल चाहते हैं कि आम व्यक्ति को अपनी स्वयं की एवं अपने परिवार की जानमाल की चिन्ता में ही बुरी तरह से उलझा कर रखा जावे, जिससे वह दूसरों की दुख-तकलीफों तथा राष्ट्र की चिन्ता करने में सक्षम ही नहीं हो सके।’’

अत: इन हालातों में यह और भी जरूरी हो गया है कि ‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (बास) के मंच पर ऐसे लोगों का उदय हो, जो राजनेताओं और धार्मिक संगठनों के बहकावे में नहीं आकर स्वयं के साथ-साथ, मानव समाज, मूक जीवजन्तु और राष्ट्र के बारे में सोचने और जरूरी कदम उठाने में सक्षम हो सकें।

हम बास के लोगों की दृष्टि : ‘‘इसलिये समाज और देश के वर्तमान हालातों में यह बहुत जरूरी हो गया है कि हम सभी भारतवासी धर्म, सम्प्रदाय, जाति, भाषा, लिंग और क्षेत्रीय विवादों से दूर रहकर सत्ता, प्रशासन और मीडिया पर काबिज भ्रष्ट तथा अत्याचारी लोगों के नापाक गठजोड़ के खिलाफ मजबूती से एकजुट हो जायें और हर हाल में, हर तरीके से जागरूक, सजग, सतर्क तथा सच्चे देशभक्त नागरिक बनने का दिल से सम्पूर्ण प्रयास करें। तब ही हम सत्ता के भूखे भेड़ियों और काले अंग्रेजों से (जिनकी कुल जनसंख्या मात्र दो प्रतिशत है) भारत को इण्डिया बनने से बचा पायेंगे।’’


अत: यदि संक्षेप और सार रूप में कहा जाये तो सन्देश के रूप में इतना कहना ही पर्याप्त है कि-

कड़वा सच : कोई भी देश कभी भी, केवल चोर-उचक्कों और बेईमानों की करतूतों से बरबाद नहीं होता है, बल्कि शरीफ लोगों की कायरता और निकम्मेपन से बरबाद होता है।

सन्देश : "एक साथ आना शुरूआत है, एक रहना प्रगति है और एक साथ काम करना सफलता है।"

मकसद : हमारा मकसद साफ! सभी के साथ इंसाफ!!

आह्वान : शोषण की चक्की में पिसते वही! जिनकी आवाज में ताकत नहीं!

चुनौती :

आखिर आप कब तक सिसकते रहोगे?
बोलोगे नहीं तो कोई सुनेगा कैसे?
लिखोगे नहीं तो कोई पढेगा कैसे?
दिखोगे नहीं तो कोई देखेगा कैसे?
मिलोगे नहीं तो पहचानोगे कैसे?
खोजोगे नहीं तो पाओगे कैसे?
सुनोगे नहीं तो समझोगे कैसे?
चलोगे नहीं तो पहुंचोगे कैसे?
लड़ोगे नहीं तो जीतोगे कैसे?
पूछोगे नहीं तो जानोगे कैसे?
जब तक बास से जुड़ोगे नहीं तो बास की ताकत को पहचानोगे कैसे?
आपका-मित्र, आपका-साथी, आपका-सहयोगी
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-बास

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